13.11.16

बस यूँ ही

कोई ऐसी रात
जब दिन बहुत दूर लगे
और तुम्हारी उँगुली के नीचे
मेरा हाथ हो
तो उसपे लिख देना
कुछ ऐसा
जो कहने की ज़रूरत ना हो
फ़ुर्सत में ही
जो कभी तो होगी

कहते हैं वो की
पतझड़ में किसने घोंसले बनायें
इधर उधर बिखरे पत्तों को बटोर
किताबों में रख लेने से थोड़े ही घर बसतें हैं
पर यहाँ तो ना दीवारें ना चौखट
बस एक हथेली
पर बनाया हुआ घेरा
बार बार वहीं पर मना लेंगे
आधी सी कार्तिक की शाम
बस यूँ ही

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