21.6.15

Untitled



वो किताब बार बार एक ही पन्ने पर खुल कर
टकटकी लगाए, इंतेज़ार करती रहती है
खिड़की से हवा के आते ही
मानो वो किताब का हर पन्ना
उस एक बदनाम पन्ने को धकेल कर
छत ताकने पर मजबूर करे बिना नही मानता

पर उस पन्ने को कोई याद नही रखना चाहता
उसके कान मोड़ कर
कोई बुकमार्क भी नही करना चाहता

मानो की, उस पन्ने को कोई तभी पढ़ना चाह सकता है
जब वो अपने आप खुल के आँखों के सामने आ बैठे

17.6.15

मोज़ाइयिक सी चाहना

जिस तरह मैं अपने पुराने घर में बसी हुई हूँ  
कई घर बदलने के बाद
(आज भी सपनों में मुझे
अपना पुराने वाला घर ही दिखता है)
तुम कुछ उसी तरह मुझ में बसे हो
अब तुम यहाँ रहो या ना रहो
बसे तो तुम हो यहाँ
थोड़े ही से सही

तुम्हारे गालों के गड्ढे
इसकी दीवारों में आलें बने बैठे हैं
तुम्हारी खुश्बू सीलन की तरह मेरे
टीबी के बाद के बचे कुचे फेफड़ों पे हावी है
तुम्हारा गुस्सा छत से पपड़ी की तरह  
धीरे धीरे मुझ पे टपकता ही रहता है

घर में सिर्फ़ तुम ही नही
और भी लोग तहख़ाने में जमे बैठे है
कोई दीमक सा मेरी पुरानी क़िताबे पचा रहा है
कोई अलमारी के उपर की धूल में छिपकली जैसा छुपा है
तो कोई मेरे कपड़ों पर कलफ़ की तरह कड़क सा लगा बैठा है

सोफे के पीछे के वो सिर के तेल के निशानो के पीलेपन से
लंबाई नापने वाले इंचों के आगे के नामो से
और पुराने कलेंडर वाली कील से
जिसपे एप्रिल अभी भी लाल है
पुत जाएँगे सब तुम्हारे जाने से
इन्ही से घर वाइट वॉश चाह रहा है

सब सफेद हो जाएगा, नये जैसा
और हो जाएगा नया, वो पुराना फर्श भी
जिसपे हम गर्मियों में चटाई बिछा कर सो जाते थे
घिसाई के बाद उसपे, पाउडर डाल कर
मैं बिना स्केट्स के ही इधर से उधर फिसलूंगी

पर फिर भी मुझे पता है
जब मैं कभी अपने ख़यालों में  
कॅमोड पे बैठे ताक रही होंगी
तुम मिलोगे उस मोज़ाइयिक फर्श पे
किसी एक धब्बे में अपनी जीब चिड़ाते हुए
और मैं हमेशा की तरह हंसकर झल्लाओंगी


बस शायद यही यह घर चाह रहा है