14.9.14

Beyond the Plateaus

I flock from one plateau to another
making each one home
to the ideas
birthing in my head
at the rate of
plural lives per second
nurturing them with love
like potted plants
only  to be abandoned
when inconvenient
while I convalesce
from the nothingness
into another abyss
full of plateaus
hoping to reach
the place I belong
but have never been to
and may never reach
but am familiar with
the taste of tomatoes
that grow there
on the land where it never rains
unable to clear the dust
settling on the bird song
that I know by heart
but forget.

9.9.14

सब कुछ के अलावा

उसे कुछ भी नही चाहिए था

मुट्ठी भर गेहूँ
वो चूयिंग गम की तरह
पूरा दिन चबा लेती
पर कभी कभी, सबके सो जाने के बाद भी,
उसकी आँखें खुली ही रहती

अक्सर अपने नाख़ून चबाते हुए
वो सब कुछ भूल जाती
मानो की वो कविता की एक पंक्ति में सही बैठ गयी हो
और मिल जाता उसे कुछ
ना कम ना ज़्यादा
जो उसकी डेस्क पे सजे डिब्बो में आराम से फिट हो जाता

तब उसे याद जाता की वो खुश है
और खुशी ऐसी की-- घंटी बजते ही,
नंगे पावं भाग कर दरवाज़ा खोल
अपने नाम की चिठ्ठी पाने जैसी,
जिसे पढ़ते ही आँख में आँसू जाए
तब वो अपने आप को बहुत दुखी पाती

और डिब्बो में रखा समान बढ़कर,
बाहर निकलने लगता
शतुरमुर्ग की तरह
वो अपना सिर उन्ही डिब्बो में छुपा लेती
और थोडा कम थोडा ज़्यादा
पा लेती वो कुछ

बल्ब के आसपास मंडराते पतंगे की
बेहूदा कोशिश से उसे घृणा होती
उसे दिन में ज़मीन पे पा वो गुस्से से झीँकती
जैसे पतंगा उसकी कुछ ना चाहने की कोशिस में भंग डालता हो
कभी कभी वो बल्ब ही बुझा देती

कुछ अपना बनाने के ख़ौफ़ से
उसे कुछ ना पाने का सुख बेहतर मालूम होता
कैंची से अपने स्कर्ट के सारे धागे काट
उसे फेला कर बिछा देती
की उसमे कुछ भी समेटा ना जाए

अपने हर जनम दिन की खुशी में
एक नया डिब्बा खोल वो डेस्क पे रख लेती
खाली ही
इस उमीद में की उसमे कुछ नही रखेगी
क्यूंकी उसे तो कुछ भी नही चाहिए

झील की जलपरी की तरह पानी के अंदर और बाहर फुदक कर
वो उनके बीच की जगह खोजती रहती
कभी कुछ मिल जाता उसे जब
वो फिर उपर आकर कुछ और खोज लेती

क्यूंकी उसे कुछ भी नही चाहिए
सब कुछ के अलावा