9.9.14

सब कुछ के अलावा

उसे कुछ भी नही चाहिए था

मुट्ठी भर गेहूँ
वो चूयिंग गम की तरह
पूरा दिन चबा लेती
पर कभी कभी, सबके सो जाने के बाद भी,
उसकी आँखें खुली ही रहती

अक्सर अपने नाख़ून चबाते हुए
वो सब कुछ भूल जाती
मानो की वो कविता की एक पंक्ति में सही बैठ गयी हो
और मिल जाता उसे कुछ
ना कम ना ज़्यादा
जो उसकी डेस्क पे सजे डिब्बो में आराम से फिट हो जाता

तब उसे याद जाता की वो खुश है
और खुशी ऐसी की-- घंटी बजते ही,
नंगे पावं भाग कर दरवाज़ा खोल
अपने नाम की चिठ्ठी पाने जैसी,
जिसे पढ़ते ही आँख में आँसू जाए
तब वो अपने आप को बहुत दुखी पाती

और डिब्बो में रखा समान बढ़कर,
बाहर निकलने लगता
शतुरमुर्ग की तरह
वो अपना सिर उन्ही डिब्बो में छुपा लेती
और थोडा कम थोडा ज़्यादा
पा लेती वो कुछ

बल्ब के आसपास मंडराते पतंगे की
बेहूदा कोशिश से उसे घृणा होती
उसे दिन में ज़मीन पे पा वो गुस्से से झीँकती
जैसे पतंगा उसकी कुछ ना चाहने की कोशिस में भंग डालता हो
कभी कभी वो बल्ब ही बुझा देती

कुछ अपना बनाने के ख़ौफ़ से
उसे कुछ ना पाने का सुख बेहतर मालूम होता
कैंची से अपने स्कर्ट के सारे धागे काट
उसे फेला कर बिछा देती
की उसमे कुछ भी समेटा ना जाए

अपने हर जनम दिन की खुशी में
एक नया डिब्बा खोल वो डेस्क पे रख लेती
खाली ही
इस उमीद में की उसमे कुछ नही रखेगी
क्यूंकी उसे तो कुछ भी नही चाहिए

झील की जलपरी की तरह पानी के अंदर और बाहर फुदक कर
वो उनके बीच की जगह खोजती रहती
कभी कुछ मिल जाता उसे जब
वो फिर उपर आकर कुछ और खोज लेती

क्यूंकी उसे कुछ भी नही चाहिए
सब कुछ के अलावा



3 comments:

  1. Jheel ki jalpari ki tarah, ye kavita, kabhi pani ke andar, to kabhi bahar fudak kar, mujhe kabhi tumhari, to kabhi apni yaad dilati hai...

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