12.6.14

चाहना से

तुम्हारे कह देने की वजह से नही
बस समझो की तुम्हारे कह देने से
झूंझलाती हुई गयी मरी

यह कविता

एक सिरे से शुरू कर
तुम्हारे दूसरे सिरे तक जाने की
बेकार और बेमन कोशिश सी

ऊंघते हुए
तुम्हारे गालों के गड्ढे देख कर
मन ही मन मुस्काने के सुख सी साधारण

एक अजनबी को अपने
कुछ घूट पीए हुए
पानी के ग्लास से पानी दे देने जैसी अजीब

बिल्कुल एक सी इच्छाओं
और सीरतो जैसी
एकदम आसान

पर दो पूर्णतः अलग लोगों के बीच
बिना कोई उम्मीद जगाने वाली
उस अनकही बात सी अंजान

कभी ना मिलने वाली लकीरों की तरह
शुरू ही ख़तम से होने वाली
हताश रातों की फिराक़ जैसी मामूली

लू के थपेड़ो में आँधी की आहत
और भीड़ में गुम कर देने जैसी
आम उपमाओ में लिपि पूती

उन सभी घंटों के समूह में छुपी हुई
नादानजिनके हर कोने में तुम्हे सही बैठाने
की ताक बसती है

अब क्या यह कहूँ की तुम
अपनी जगह बनाते हुए
पसर ही गये, या फिर,

ये की मुझे नही पता
उस एक सिरे से दूसरे पर
कहाँ तुम शुरू और मैं ख़तम हो जाती हूँ

उफ्फ तो भुग्तो

क्यूंकी ऐसी सी ही बनती है
एक कविता तुम्हारे कहने की
मासूम चाहना से

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